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    Wednesday, January 10, 2018

    SC refers plea against section 377 of IPC to larger bench. उच्चतम न्यायालय ने धारा 377 के अंतर्गत समलैंगिकता को अपराध न मानने की मांग संबंधी याचिका बड़ी पीठ को सौंपी:Current affairs 10 January 2018 - Hindi / English / Marathi

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    Current affairs 10 January 2018 - Hindi / English / Marathi


    Hindi

    उच्चतम न्यायालय ने धारा 377 के अंतर्गत समलैंगिकता को अपराध न मानने की मांग संबंधी याचिका बड़ी पीठ को सौंपी:
    उच्चतम न्यायालय ने परस्पर सहमति से दो वयस्कों के बीच समलैंगिक संबंधों को अपराध न मानने की मांग संबंधी याचिका बड़ी पीठ को सौंप दी है।
    प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा और न्यायमूर्ति एएम खानविलकर और न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ ने कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत उठे इस मामले पर बड़ी पीठ में विचार किए जाने की जरूरत है। पीठ ने धारा 377 को गैर-संवैधानिक घोषित करने की मांग संबंधी एक याचिका पर सुनवाई के दौरान यह बात कही।
    गौरतलब है कि दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले को बदलते हुए 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने बालिग समलैंगिकों के संबंध को अवैध करार दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने 5 एलजीबीटी समुदाय के लोगों की तरफ से दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार से भी इस मुद्दे पर जवाब मांगा है।
    सुप्रीम कोर्ट के 2013 के फैसले पर क्यूरेटिव पिटिशन डाली गई थी जिसमें संवैधानिक अधिकार का हवाला दिया गया था। इस मामले में 2009 में दिल्ली हाई कोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटाने का फैसला दिया था।
    केंद्र सरकार ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। जिसके बाद दिसंबर 2013 में हाई कोर्ट के आदेश को पलटते हुए समलैंगिकता को आईपीसी की धारा 377 के तहत अपराध बरकरार रखा।
    क्या कहती है धारा 377?
    भारतीय दंड संहिता की धारा 377 अप्राकृतिक अपराधों का हवाला देते हुए कहती है कि जो कोई भी किसी पुरुष, महिला या पशु के साथ प्रकृति के विपरीत यौनाचार करता है तो इस अपराध के लिए उसे उम्रक़ैद की सज़ा होगी या एक निश्चित अवधि जो दस साल तक बढ़ाई जा सकती है और उस पर जुर्माना भी लगाया जाएगा।
    आम तौर पर यौन अपराध तभी अपराध माने जाते हैं जब वे किसी की सहमति के बिना किए जाएं। लेकिन धारा 377 की परिभाषा में कहीं भी सहमति-असहमति का जिक्र ही नहीं है। इस कारण यह धारा समलैंगिक पुरुषों के सहमति से बनाए गए यौन संबंधों को भी अपराध की श्रेणी में पहुंचा देती है।
    पीठ धारा 377 को उस सीमा तक असंवैधानिक घोषित करने के लिए नवतेज़ सिंह जौहर की याचिका पर सुनवाई कर रही थी जिसमें परस्पर सहमति से दो वयस्कों के यौनाचार में संलिप्त होने पर मुकदमा चलाने का प्रावधान है।
    धारा 377 को 1860 में अंग्रेजों द्वारा भारतीय दंड संहिता में शामिल किया गया था। उस वक्त इसे ईसाई धर्म में भी अनैतिक माना जाता था। लेकिन 1967 में ब्रिटेन ने भी समलैंगिक संबंधों को कानूनी मान्यता दे दी है।
    पृष्ठभूमि:
    दिल्ली की एक संस्था ‘नाज़ फाउंडेशन’ जोकि काफी समय से एड्स की रोकथाम और इसके प्रति जागरूकता फ़ैलाने का काम कर रही है, ने 2001 में दिल्ली उच्च न्यायालय से धारा 377 को गैर-संवैधानिक घोषित करने की मांग की थी।
    इसके बारे में संस्था की संस्थापक अंजलि गोपालन का कहना था, ‘समलैंगिक संबंध बनाने वाले पुरुष एड्स होने पर भी सामने नहीं आते। उन्हें डर होता है कि धारा 377 के तहत उन्हें सजा न हो जाए। ऐसे में एड्स की रोकथाम तो क्या संक्रमित लोगों की पहचान भी नहीं हो पाती। पुलिस अधिकारियों द्वारा समलैंगिक लोगों के उत्पीड़न के भी कई मामले हुए हैं। ऐसे में वे लोग सुरक्षित यौन संबंध बनाने के लिए चिकित्सकीय सामग्री खरीदते वक्त भी घबराते थे।’
    बता दें कि देश भर में इस वक्त कई संगठन हैं जो समलैंगिकों को समान अधिकार और गरिमा के साथ जीवन जीने के अधिकार के लिए काम कर रहे हैं। विश्व के कई देशों में समलैंगिकों को अब शादी का अधिकार भी मिल चुका है। हाल ही में ऑस्ट्रेलिया ने समलैंगिकों को विवाह का अधिकार दिया है।


    English


    SC refers plea against section 377 of IPC to larger bench
    The Supreme Court referred to a larger bench a plea seeking decriminalisation of gay sex between two consenting adults.
    Section 377:
    • Section 377 of the IPC refers to ‘unnatural offences’ and says whoever voluntarily has intercourse ‘against the order of nature’ with any man, woman or animal, shall be punished with imprisonment for life, or with imprisonment of either description for a term which may extend to ten years, and shall also be liable to pay a fine.
    The court noted that Section 377 punishes carnal intercourse against order of nature, it added that "the determination of order of nature is not a common phenomenon. Individual autonomy and individual natural inclination cannot be atrophied unless the restrictions are determined as reasonable."
    The court observed that what is natural for one may not be natural for the other, but the confines of law cannot trample or curtail the inherent rights embedded with an individual under Article 21 (right to life) of the Constitution. The court said the concept of consensual sex may require more protection.
    Initially the Bench seemed reluctant, saying a five judge Bench is already considering a curative petition by Naz against 2013 verdict. The court at one point observed that a provision cannot become unconstitutional purely because it is abused. The senior advocate argued that Section 377 has the potential to destroy individual choice and sexual orientation.
    The bench was hearing a fresh plea filed by Navtej Singh Johar, seeking that Section 377 be declared as unconstitutional to the extent that it provides for the prosecution of adults for indulging in consensual gay sex.
    The 2013 judgment's view that “a miniscule fraction of the country’s population constitutes lesbians, gays, bisexuals or transgenders” was not a sustainable basis to deny the right to privacy, Justice D.Y. Chandrachud had observed in his majority judgment.




    Marathi

    IPC कलम 377 विरूद्धची याचिका मोठ्या खंडपीठाकडे संदर्भित केली गेली

    भारतीय दंड संहितेच्या कलम 377 याच्या विरोधात परस्पर सहमतीने दोन वयस्कांच्या समलैंगिक संबंधांना गुन्हा न मानण्याची मागणी करणारी याचिका दाखल करण्यात आली आहे. सर्वोच्च न्यायालयाने या विषयावर गंभीरपणे चर्चा होण्यासाठी ही याचिका मोठ्या खंडपीठाकडे संदर्भित केली आहे.
    भारतीय सरन्यायाधीश दीपक मिश्रा आणि न्या. ए. एम. खानविलकर व न्या. डी. वाय. चंद्रचूड यांच्या खंडपीठाने हा निर्णय दिला. याचिकेनुसार IPC कलम 377 ही असंवैधानिक असल्याचे मानले जात आहे.
    यापूर्वी 2009 साली दिल्ली उच्च न्यायालयाने समलैंगिकतेला गुन्हाच्या श्रेणीमधून हटविण्याचा निर्णय दिला होता. या निर्णयाला बदलत 2013 साली सर्वोच्च न्यायालयाने वयस्क समलैंगिकांच्या संबंधांना अवैध ठरवले होते.
    IPC कलम 377 काय म्हणते?
    भारतीय दंड संहितेच्या कलम 377 अनुसार, अनैसर्गिक गुन्ह्यांचा हवाला देते असे म्हटले गेले आहे की कोणताही पुरुष, स्त्री वा पशुसोबत निसर्गाच्या विरुद्ध लैंगिक संबंध प्रस्थापित केल्यास, या गुन्ह्यादाखल त्या व्यक्तीस आजीवन कारावास दिला जाणार किंवा एक निश्चित कालावधी, जो 10 वर्षांपर्यंत वाढवला जाऊ शकतो आणि त्यावर रोख दंड देखील आकारला जाईल.
    सर्वसाधारणपणे लैंगिक गुन्हे तेव्हाच गुन्हे मानले जातात जेव्हा शोषित व्यक्तीच्या सहमती शिवाय केले गेले असेल. मात्र कलम 377 च्या व्याख्येत कुठेही सहमती वा असहमती शब्दांचा वापर केला गेलेला नाही. यामुळे समलैंगिकांच्या सहमतीने प्रस्थापित केल्या गेलेल्या लैंगिक संबंधांना देखील गुन्ह्याच्या श्रेणीत मानल्या जाते.
    कलम 377 ला 1860 साली इंग्रजांकडून भारतीय दंड संहितेत समाविष्ट केले गेले होते. त्यावेळी ख्रिस्ती धर्मातही अश्या संबंधाना अनैतिक मानले जात होते. मात्र 1967 साली ब्रिटनने देखील समलैंगिक संबंधांना अधिकृत मान्यता दिली.



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