करेंट अफेयर्स २० जनवरी २०१८ हिंदी/ इंग्लिश/मराठी
वैज्ञानिकों ने इमारतों की मरम्मत के लिए सेल्फ-हीलिंग कंक्रीट का निर्माण करने के लिए कवक का इस्तेमाल किया:
वैज्ञानिकों ने स्वयं ठीक होने वाले (सेल्फ-हीलिंग) कंक्रीट को विकसित करने के लिए कवक का उपयोग किया है जोकि पुरानी इमारतों में दरारों की मरम्मत कर सकता है और साथ ही बुनियादी ढांचे को ढहने से बचा सकता है।
दरारों को यदि समय पर ठीक न किया जाए तो ये लगातार बढ़ती जाती हैं और फिर इनकी मरम्मत में अत्यधिक खर्च की आवश्यकता होती है। यदि सूक्ष्म-दरारें विस्तारित होती हैं और इस्पात सुदृढीकरण (reinforcement) तक पहुंच जाती हैं, तो ये न केवल कंक्रीट को ख़राब करेंगी अपितु इस्पात सुदृढीकरण को भी खत्म कर देंगीं, क्योंकि ये पानी, ऑक्सीजन, संभवत: CO2 और क्लोराइड से क्रिया करने के लिए उजागर हो जाती हैं, जिससे संरचनात्मक विफलता हो सकती है।
ये दरारें बुनियादी ढांचे (ईमारत) के लिए बड़ी और कभी-कभी अनदेखी समस्याएं पैदा कर सकती हैं। पुनर्रचना के दौरान, पुरानी होती कंक्रीट को बदला जाएगा लेकिन यह केवल एक अल्पकालिक इलाज होगा।
ट्रायकोडर्मा रीसी नामक एक कवक जोकि कंक्रीट के साथ मिलाये जाने के समय तब तक निष्क्रिय रहता है जब तक कि पहली दरार दिखाई नहीं पड़ जाती है। फंगल स्पोर्स (कवक बीजाणु) को, पोषक तत्वों के साथ, मिश्रण प्रक्रिया के दौरान कंक्रीट मैट्रिक्स में रखा जाएगा। इसके बाद यदि दरारें पड़ती हैं तो पानी और ऑक्सीजन को अपना रास्ता मिल जाएगा।
पर्याप्त पानी और ऑक्सीजन के साथ, दरारों को भरने के लिए निष्क्रिय फंगल स्पोर्स तेजी से उंगेंगे, बढ़ेंगे और कैल्शियम कार्बोनेट को प्रेसिपिटेट करेंगे। जब दरारें पूरी तरह से भर जाती हैं और अंत में पानी या ऑक्सीजन अंदर प्रवेश नहीं कर पाटा है, तो फंगस फिर से स्पोर्स बना देगा। चूंकि पर्यावरण की स्थिति बाद के चरणों में अनुकूल हो जाती है, तो स्पोर्स को फिर से प्रयोग में लाया जा सकता है।
यह अध्ययन हाल ही में जर्नल कंस्ट्रक्शन एंड बिल्डिंग मैटेरियल्स में प्रकाशित हुआ था।
Scientists use Fungi to make self-healing concrete to repair buildings
Scientists have used fungi to create a self-healing concrete that could repair cracks in ageing buildings and save crumbling infrastructure.
Without proper treatment, cracks tend to progress further and eventually require costly repair. If micro-cracks expand and reach the steel reinforcement, not only the concrete will be attacked, but also the reinforcement will be corroded, as it is exposed to water, oxygen, possibly CO2 and chlorides, leading to structural failure. These cracks can cause huge and sometimes unseen problems for infrastructure. While remaking a structure would replace the aging concrete, this would only be a short-term fix until more cracks again spring up.
Fungus to make self-healing concrete
A fungus called Trichoderma reesei which lies dormant when mixed with concrete - until the first crack appears. “The fungal spores, together with nutrients, will be placed into the concrete matrix during the mixing process. When cracking occurs, water and oxygen will find their way in. With enough water and oxygen, the dormant fungal spores will germinate, grow and precipitate calcium carbonate to heal the cracks.
When the cracks are completely filled and ultimately no more water or oxygen can enter inside, the fungi will again form spores. As the environmental conditions become favorable in later stages, the spores could be wakened again. The research is still in the fairly early stages, with the biggest issue being the survivability of the fungus within the harsh environment of concrete.
‘ट्रायकोडर्मा रीसेई’ नामक बुरशीचे मूळ सुप्तावस्थेत कॉंक्रिटमध्ये संमिश्र केले जाऊ शकते. जेव्हा कधी पहिली भेग दिसायला लागते, तेव्हा ही बुरशी बाहेरून पाणी आणि ऑक्सिजन सारखे पोषक तत्व घेऊन बहरणार आणि या भेगा भरून काढण्यासाठी प्रेसिपीटेट कॅल्शियम कार्बोनेट तयार करणार.
हा प्रयोग सध्या प्राथमिक टप्प्यात आहे, पुढे कॉंक्रिटमधील वातावरणात ही बुरशी तग धरू शकणार का याविषयी अभ्यास केला जाणार आहे.
शोधाचे महत्त्व
अमेरिकेमधील रूटगर्स विद्यापीठ आणि बिंगहॅमटन विद्यापीठ येथील शास्त्रज्ञांनी असे आढळून आले की जुन्या कॉंक्रीटमधील समस्येचे मूळ लहान-लहान भेगामध्ये आहे.
वेळीच या भेगा भरून न काढल्यास पुढे त्या मोठ्या होतात आणि अखेरीस महागड्या दुरुस्तीची आवश्यकता पडते. या भेगा विस्तारल्या आणि लोखंडी सापळ्यापर्यंत पोहचल्या तर फक्त कॉंक्रीटवरच प्रतिकूल परिणाम होणार नाही तर वारंवार पाणी, ऑक्सिजन, शक्यतो CO2 आणि क्लोराईडच्या संपर्कामुळे लोखंड गंजून पुढे इमारत पडण्याची शक्यता उद्भवू शकते.
अणुप्रकल्पासारख्या महत्त्वाच्या पायाभूत सुविधा कॉंक्रीटपासून बनविलेल्या असतात. यामुळे अश्या बाबी लक्षात घेऊन असा मार्ग शोधण्याचा विचार केला गेला, जेणेकरून काँक्रीटला कायमस्वरूपी भरून काढता येणार.
यासंबंधी शोधाभ्यास ‘कन्स्ट्रकशन अँड बिल्डिंग मटेरियल्स’ नियतकालिकेत प्रकाशित झाला आहे.
हिंदी
वैज्ञानिकों ने इमारतों की मरम्मत के लिए सेल्फ-हीलिंग कंक्रीट का निर्माण करने के लिए कवक का इस्तेमाल किया:
वैज्ञानिकों ने स्वयं ठीक होने वाले (सेल्फ-हीलिंग) कंक्रीट को विकसित करने के लिए कवक का उपयोग किया है जोकि पुरानी इमारतों में दरारों की मरम्मत कर सकता है और साथ ही बुनियादी ढांचे को ढहने से बचा सकता है।
दरारों को यदि समय पर ठीक न किया जाए तो ये लगातार बढ़ती जाती हैं और फिर इनकी मरम्मत में अत्यधिक खर्च की आवश्यकता होती है। यदि सूक्ष्म-दरारें विस्तारित होती हैं और इस्पात सुदृढीकरण (reinforcement) तक पहुंच जाती हैं, तो ये न केवल कंक्रीट को ख़राब करेंगी अपितु इस्पात सुदृढीकरण को भी खत्म कर देंगीं, क्योंकि ये पानी, ऑक्सीजन, संभवत: CO2 और क्लोराइड से क्रिया करने के लिए उजागर हो जाती हैं, जिससे संरचनात्मक विफलता हो सकती है।
ये दरारें बुनियादी ढांचे (ईमारत) के लिए बड़ी और कभी-कभी अनदेखी समस्याएं पैदा कर सकती हैं। पुनर्रचना के दौरान, पुरानी होती कंक्रीट को बदला जाएगा लेकिन यह केवल एक अल्पकालिक इलाज होगा।
ट्रायकोडर्मा रीसी नामक एक कवक जोकि कंक्रीट के साथ मिलाये जाने के समय तब तक निष्क्रिय रहता है जब तक कि पहली दरार दिखाई नहीं पड़ जाती है। फंगल स्पोर्स (कवक बीजाणु) को, पोषक तत्वों के साथ, मिश्रण प्रक्रिया के दौरान कंक्रीट मैट्रिक्स में रखा जाएगा। इसके बाद यदि दरारें पड़ती हैं तो पानी और ऑक्सीजन को अपना रास्ता मिल जाएगा।
पर्याप्त पानी और ऑक्सीजन के साथ, दरारों को भरने के लिए निष्क्रिय फंगल स्पोर्स तेजी से उंगेंगे, बढ़ेंगे और कैल्शियम कार्बोनेट को प्रेसिपिटेट करेंगे। जब दरारें पूरी तरह से भर जाती हैं और अंत में पानी या ऑक्सीजन अंदर प्रवेश नहीं कर पाटा है, तो फंगस फिर से स्पोर्स बना देगा। चूंकि पर्यावरण की स्थिति बाद के चरणों में अनुकूल हो जाती है, तो स्पोर्स को फिर से प्रयोग में लाया जा सकता है।
यह अध्ययन हाल ही में जर्नल कंस्ट्रक्शन एंड बिल्डिंग मैटेरियल्स में प्रकाशित हुआ था।
इंग्लिश
Scientists use Fungi to make self-healing concrete to repair buildings
Scientists have used fungi to create a self-healing concrete that could repair cracks in ageing buildings and save crumbling infrastructure.
Without proper treatment, cracks tend to progress further and eventually require costly repair. If micro-cracks expand and reach the steel reinforcement, not only the concrete will be attacked, but also the reinforcement will be corroded, as it is exposed to water, oxygen, possibly CO2 and chlorides, leading to structural failure. These cracks can cause huge and sometimes unseen problems for infrastructure. While remaking a structure would replace the aging concrete, this would only be a short-term fix until more cracks again spring up.
Fungus to make self-healing concrete
A fungus called Trichoderma reesei which lies dormant when mixed with concrete - until the first crack appears. “The fungal spores, together with nutrients, will be placed into the concrete matrix during the mixing process. When cracking occurs, water and oxygen will find their way in. With enough water and oxygen, the dormant fungal spores will germinate, grow and precipitate calcium carbonate to heal the cracks.
When the cracks are completely filled and ultimately no more water or oxygen can enter inside, the fungi will again form spores. As the environmental conditions become favorable in later stages, the spores could be wakened again. The research is still in the fairly early stages, with the biggest issue being the survivability of the fungus within the harsh environment of concrete.
मराठी
शास्त्रज्ञांनी इमारतींच्या दुरुस्तीसाठी स्वताःच कॉंक्रीट तयार करणार्या बुरशीचा वापर केला
वातावरणाच्या मार्याने जुन्या इमारतींमध्ये भेगा पडतात. या भेगांमुळे इमारत पडण्याचा धोका कायम असतो. या भेगा भरून काढण्यासाठी शास्त्रज्ञांनी अश्या एका बुरशीचा वापर केला आहे, जी स्वताःच कॉंक्रीट तयार करते.‘ट्रायकोडर्मा रीसेई’ नामक बुरशीचे मूळ सुप्तावस्थेत कॉंक्रिटमध्ये संमिश्र केले जाऊ शकते. जेव्हा कधी पहिली भेग दिसायला लागते, तेव्हा ही बुरशी बाहेरून पाणी आणि ऑक्सिजन सारखे पोषक तत्व घेऊन बहरणार आणि या भेगा भरून काढण्यासाठी प्रेसिपीटेट कॅल्शियम कार्बोनेट तयार करणार.
हा प्रयोग सध्या प्राथमिक टप्प्यात आहे, पुढे कॉंक्रिटमधील वातावरणात ही बुरशी तग धरू शकणार का याविषयी अभ्यास केला जाणार आहे.
शोधाचे महत्त्व
अमेरिकेमधील रूटगर्स विद्यापीठ आणि बिंगहॅमटन विद्यापीठ येथील शास्त्रज्ञांनी असे आढळून आले की जुन्या कॉंक्रीटमधील समस्येचे मूळ लहान-लहान भेगामध्ये आहे.
वेळीच या भेगा भरून न काढल्यास पुढे त्या मोठ्या होतात आणि अखेरीस महागड्या दुरुस्तीची आवश्यकता पडते. या भेगा विस्तारल्या आणि लोखंडी सापळ्यापर्यंत पोहचल्या तर फक्त कॉंक्रीटवरच प्रतिकूल परिणाम होणार नाही तर वारंवार पाणी, ऑक्सिजन, शक्यतो CO2 आणि क्लोराईडच्या संपर्कामुळे लोखंड गंजून पुढे इमारत पडण्याची शक्यता उद्भवू शकते.
अणुप्रकल्पासारख्या महत्त्वाच्या पायाभूत सुविधा कॉंक्रीटपासून बनविलेल्या असतात. यामुळे अश्या बाबी लक्षात घेऊन असा मार्ग शोधण्याचा विचार केला गेला, जेणेकरून काँक्रीटला कायमस्वरूपी भरून काढता येणार.
यासंबंधी शोधाभ्यास ‘कन्स्ट्रकशन अँड बिल्डिंग मटेरियल्स’ नियतकालिकेत प्रकाशित झाला आहे.
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